Categories: कविता

कितनी नावों में कितनी बार

Published by
Sachchidananda Hirananada Vatsyayan (agyeya)

कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठ कर
मैं तुम्हारी ओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति!
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मण्डल।
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लान्त —
ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार…
और कितनी बार कितने जगमग जहाज़
मुझे खींच कर ले गये हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अँधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश —
जिसमें कोई प्रभा-मण्डल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य — तथ्य —
सत्य नहीं, अन्तहीन सच्चाइयाँ…
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त —कितनी बार!

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Sachchidananda Hirananada Vatsyayan (agyeya)