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फ़र्क़ – आलोक धन्वा की कविता

Published by
Alok Dhanwa

देखना
एक दिन मैं भी उसी तरह शाम में
कुछ देर के लिए घूमने निकलूँगा
और वापस नहीं आ पाऊँगा!

समझा जायेगा कि
मैंने ख़ुद को ख़त्म किया!

नहीं, यह असम्भव होगा
बिल्कुल झूठ होगा!
तुम भी मत यक़ीन कर लेना
तुम तो मुझे थोड़ा जानते हो!
तुम
जो अनगिनत बार
मेरी कमीज़ के ऊपर ऐन दिल के पास
लाल झण्डे का बैज लगा चुके हो
तुम भी मत यक़ीन कर लेना।

अपने कमज़ोर से कमज़ोर क्षण में भी
तुम यह मत सोचना
कि मेरे दिमाग़ की मौत हुई होगी!
नहीं, कभी नहीं!

हत्याएँ और आत्महत्याएँ एक जैसी रख दी गयी हैं
इस आधे अँधेरे समय में।
फ़र्क़ कर लेना साथी!

Published by
Alok Dhanwa