कविता

माया – अमृता प्रीतम की कविता

Published by
Amrita Pritam

अप्सरा ओ अप्सरा!
शहज़ादी ओ शहज़ादी!
विंसेण्ट की गोरी!
तुम सच क्यों नहीं बनती?

यह कैसा हुस्न और कैसा इश्क़!
और तू कैसी अभिसारिका!
अपने किसी महबूब की
तू आवाज़ क्यों नहीं सुनती?

दिल में एक चिनगारी डालकर
जब कोई साँस लेता है
कितने अंगारे सुलग उठते हैं,
तू उन्हें क्यों नहीं गिनती?

यह कैसा हुनर और कैसी कला?
जीने का एक बहाना है
यह तख़य्यल का सागर है
तू कभी क्यों नहीं नापती?

अप्सरा ओ अप्सरा!
शहज़ाही ओ शहज़ादी!
तेरा खयाल न आर देता है
न पार देता है

सूरज रोज़ ढूंढता है
मुँह कहीं नहीं दिखता है
तेरा मुँह, जो रात को
इक़रार देता है

तड़प किसे कहते हैं,
तू यह नहीं जानती
किसी पर कोई अपनी
ज़िन्दगी क्यों निसार करता है

अपने दोनों जहाँ
कोई दाँव पर लगाता है
नामुराद हँसता है
और हार जाता है

अप्सरा ओ अप्सरा!
शहज़ाही ओ शहज़ादी!
इस तरह लाखों ख्याल
आयेंगे, चले जायेंगे

तेरा यह सुर्ख ज़हर
कोई रोज़ पी लेगा
और तेरे नक़्श हर रोज़
जादू कर जायेंगे

तेरी कल्पना हँसेगी,
कोई रात-भर तड़पेगा
और बरस के बरस
इस तरह बीत जायेंगे

हुनर भूखा है, ऐ रोटी!
प्यार भूखा है, ऐ गोरी!
तेरे कितने वानगॉग
इस तरह मर जायेंगे?

अप्सरा ओ अप्सरा!
शहज़ाही ओ शहज़ादी!
हुस्न कैसा खेल है
कि इश्क़ जीत नहीं पाता

रात जाने कितनी काली है –
उम्र को भी जला के देख लिया
चाँद-सूरज कैसे चिराग़ हैं
कोई जल नहीं पाता

ऐ अप्सरा! तुम्हारा बुत
और गेहूँ की एक बाली
वह कैसी धरतियाँ हैं
कुछ भी नहीं उग पाता

हुनर भूखा है, ऐ रोटी!
प्यार भूखा है, ऐ गोरी!
निज़ाम का पेड़ कैसा है.
जिसमें कोई फल नहीं आता…

माया

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Amrita Pritam