सर्वगुण सम्पन्न स्त्रियाँ
तेज़ स्वर में सम्वाद नहीं कर सकतीं, तब भी
जबकि उनका मन चीख़ना चाहता है,
दूसरों के कानों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए
वे स्वयं को व्यक्त नहीं कर सकतीं, तब भी
जबकि उनके स्वतंत्र विचार, उनके मस्तिष्क से
बाहर निकलने को आतुर होते हैं
वे क्रोध नहीं कर सकतीं, तब भी
जबकि वे असहमत होती हैं खोखली रूढ़ियों से जो
बनायी गई होती हैं, मात्र स्त्रियों के लिए
वे आड़ी-तिरछी रोटियाँ नहीं बना सकतीं, तब भी
जबकि रोटियाँ बनाना उन्हें ज़रा भी नहीं भाता
सर्वगुण सम्पन्न स्त्रियाँ
स्वयं बनती नहीं हैं,
समाज उन्हें गढ़ता है
अपने विचार उन पर थोपकर
उनकी चेतना को ध्वस्त कर
सर्वगुण सम्पन्न स्त्रियाँ
वही नहीं रह जातीं जो वे पहले थीं
उनका वास्तविक चैतन्य स्वरूप लुप्त हो जाता है
वे कण्ठस्थ कर चुकी होती हैं कि
रोटियाँ बनाना स्त्रियों का मूल कर्तव्य है
उनकी सहनशक्ति, उनके आत्मसम्मान से
ज़्यादा हो जाती है
जब किसी दिन, उनके भावों का बाँध
टूटता है,
तब कौन सा विकल्प बचता है उनके पास
रोने के अलावा?
उस क्षण, कदाचित,
आभार मानती हों वे, उस समाज का
जिसकी दृष्टि में
‘रोना’
स्त्रियों का गुणधर्म है!