ग़ज़ल

कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं

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Habib Jalib

कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं
अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं

बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ
न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं

वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है
न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं

कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम
चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं

हमेशा औज पर देखा मुक़द्दर उन अदीबों का
जो इब्नुलवक़्त होते हैं हवा के साथ चलते हैं

हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया ‘जालिब’
कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खूँ से जलते हैं

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Habib Jalib