Categories: ग़ज़ल

यूँही वाबस्तगी नहीं होती

Published by
Ibn-e- Safi

यूँही वाबस्तगी नहीं होती
दूर से दोस्ती नहीं होती

जब दिलों में ग़ुबार होता है
ढंग से बात भी नहीं होती

चाँद का हुस्न भी ज़मीन से है
चाँद पर चाँदनी नहीं होती

जो न गुज़रे परी-वशों में कभी
काम की ज़िंदगी नहीं होती

दिन के भूले को रात डसती है
शाम को वापसी नहीं होती

आदमी क्यूँ है वहशतों का शिकार
क्यूँ जुनूँ में कमी नहीं होती

इक मरज़ के हज़ार हैं नब्बाज़
फिर भी तश्ख़ीस ही नहीं होती..

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Ibn-e- Safi