Categories: ग़ज़ल

अजीब ख़्वाब था हम बाग़ में खड़े हुए थे

Published by
Jabbar Wasif

अजीब ख़्वाब था हम बाग़ में खड़े हुए थे
हमारे सामने फूलों के सर पड़े हुए थे

बरहना तितलियाँ रक़्साँ थीं उर्यां शाख़ों पर
ज़मीं में सारे शजर शर्म से गड़े हुए थे

तमाम पात थे नीले बुज़ुर्ग बरगद के
उसी को डसने से साँपों के फन बड़े हुए थे

ज़ईफ़ पेड़ थे बूढ़ी हवा से शर्मिंदा
जवाँ परिंदे किसी बात पर अड़े हुए थे

न कोई नग़्मा-ए-बुलबुल न कोई नग़्मा-ए-गुल
ख़ुदा-ए-सुब्ह से सब ख़ुश-गुलू लड़े हुए थे

वहीं पे सामने ‘वासिफ़’ था एक क़ब्रिस्ताँ
जहाँ यहाँ वहाँ सब नामवर सड़े हुए थे

फिर एक क़ब्र हुई शक़ तो उस में थे दो दिल
और उन दिलों में मोहब्बत के नग जड़े हुए थे

1
Published by
Jabbar Wasif