कविता

आवाज़ें – कुंवर नारायण की कविता

Published by
Kunwar Narayan

यह आवाज़
लोहे की चट्टानों पर
चुम्बक के जूते पहन कर
दौड़ने की आवाज़ नहीं है

यह कोलाहल और चिल्लाहटें
दो सेनाओं के टकराने की आवाज़ है,

यह आवाज़
चट्टानों के टूटने की भी नहीं है
घुटनों के टूटने की आवाज़ है

जो लड़ कर पाना चाहते थे शान्ति
यह कराह उनकी निराशा की आवाज़ है,
जो कभी एक बसी बसाई बस्ती थी
यह उजाड़ उसकी सहमी हुई आवाज़ है,

बधाई उन्हें जो सो रहे बेख़बर नींद
और देख रहे कोई मीठा सपना,
यह आवाज़ उनके खर्राटों की आवाज़ है,

कुछ आवाज़ें जिनसे बनते हैं
हमारे अन्त:करण
इतनी सांकेतिक और आंतरिक होती है

कि उनके न रहने पर ही
हम जान पाते हैं कि वे थीं

सूक्ष्म कड़ियों की तरह
आदमी से आदमी को जोड़ती हुई
अदृश्य शृंखलाएँ

जब वे नहीं रहतीं तो भरी भीड़ में भी
आदमी अकेला होता चला जाता है

मेरे अन्दर की यह बेचैनी
ऐसी ही किसी मूल्यवान कड़ी के टूटने की
आवाज़ तो नहीं?

698
Published by
Kunwar Narayan