कविता

जो मुखरित कर जाती थीं

Published by
Mahadevi Verma

जो मुखरित कर जाती थीं
मेरा नीरव आवाहन,
मैं नें दुर्बल प्राणों की
वह आज सुला दी कंपन!
थिरकन अपनी पुतली की
भारी पलकों में बाँधी
निस्पंद पड़ी हैं आँखें
बरसाने वाली आँधी!

जिसके निष्फल जीवन नें
जल जल कर देखी राहें
निर्वाण हुआ है देखो
वह दीप लुटा कर चाहें!
निर्घोष घटाओं में छिप
तड़पन चपला सी सोती
झंझा के उन्मादों में
घुलती जाती बेहोशी!

करुणामय को भाता है
तम के परदों में आना
हे नभ की दीपावलियों!
तुम पल भर को बुझ जाना!

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Mahadevi Verma