जिनके चरनन को सलिल, हरत गत सन्ताप।
पाँय सुदामा विप्र के धोवत, ते हरि आप।।41।।
ऐसे बेहाल बेवाइन सों पगए कंटक.जाल लगे पुनि जोये।
हाय! महादुख पायो सखा तुमए आये इतै न किते दिन खोये।।
देखि सुदामा की दीन दसाए करुना करिके करुनानिधि रोये।
पानी परात को हाथ छुयो नहिंए नैनन के जल सौं पग धोये।।42।।
धोइ चरन पट-पीत सों, पोंछत भे जदुराय।
सतिभामा सों यों कह्यो, करो रसोई जाय।।43।।
तन्दुल तिय दीन्हें हुते, आगे धरियो जाय।
देखि राज-सम्पति विभव, दै नहिं सकत लजाय।।44।।
अन्तरजामी आपु हरि, जानि भगत की रीति।
सुहृद सुदामा विप्र सों, प्रगट जनाई प्रीति।।45।।
(प्रभु श्री कृष्ण सुदामा से)
कछु भाभी हमको दियौए सो तुम काहे न देत।
चाँपि पोटरी काँख मेंए रहे कहौ केहि हेत।।46।।
आगे चना गुरु.मातु दिये तए लिये तुम चाबि हमें नहिं दीने।
श्याम कह्यौ मुसुकाय सुदामा सोंए चोरि कि बानि में हौ जू प्रवीने।।
पोटरि काँख में चाँपि रहे तुमए खोलत नाहिं सुधा.रस भीने।
पाछिलि बानि अजौं न तजी तुमए तैसइ भाभी के तंदुल कीने।।47।।
छोरत सकुचत गॉठरी, चितवत हरि की ओर।
जीरन पट फटि छुटि पर्यो, बिथिर गये तेहि ठोर।।48।।
एक मुठी हरि भरि लई, लीन्हीं मुख में डारि।
चबत चबाउ करन लगे, चतुरानन त्रिपुरारि।।49।।
कांपि उठी कमला मन सोचति, मोसोंकह हरि को मन औंको।
ऋद्धि कॅपी, सबसिद्धि कॅपी, नव निद्धि कॅपी बम्हना यह धौं को।।
सोच भयो सुर-नायक के, जब दूसरि बार लिया भरि झोंको।
मेरू डर्यो बकसै जनि मोहिं, कुबेर चबावत चाउर चौंको।।50।।