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लुढ़कता पत्थर – क़तील शिफ़ाई की नज़्म

रौशनी डूब गई चाँद ने मुँह ढाँप लिया
अब कोई राह दिखाई नहीं देती मुझ को
मेरे एहसास में कोहराम मचा है लेकिन
कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती मुझ को

रात के हाथ ने किरनों का गला घूँट दिया
जैसे हो जाए ज़मीं-बोस शिवाला कोई
ये घटा-टोप अँधेरा ये घना सन्नाटा
अब कोई गीत है बाक़ी न उजाला कोई

जिस ने छुप-छुप के जलाया मिरी उम्मीदों को
वो सुलगती हुई ठंडक मिरे घर तक पहुँची
देखते देखते सैलाब-ए-हवस फैल गया
मौज-ए-पायाब उभर कर मिरे सर तक पहुँची

मिरे तारीक घरौंदे को उदासी दे कर
मुस्कुराते हैं दरीचों में इशारे क्या क्या
उफ़ ये उम्मीद का मदफ़न ये मोहब्बत का मज़ार
इस में देखे हैं तबाही के नज़ारे क्या क्या

जिस ने आँखों में सितारे से कभी घोले थे
आज एहसास पे काजल सा बिखेरा उस ने
जिस ने ख़ुद आ के टटोला था मिरे सीने को
ले लिया ग़ैर के पहलू में बसेरा उस ने

वो तलव्वुन कि नहीं जिस का ठिकाना कोई
उस के अंदाज़-ए-कुहन आज नए तौर के हैं
वही बेबाक इशारे वही भड़के हुए गीत
कल मिरे हाथ बिके आज किसी और के हैं

वो महकता सा चहकता सा उबलता सीना
उस की मीआद है दो रोज़ लिपटने के लिए
ज़ुल्फ़ बिखरी हुई बिखरी तो नहीं रह सकती
फैलता है कोई साया तो सिमटने के लिए

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By: Qateel Shifai

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