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तुझ में तो एक ख़ू-ए-जफ़ा और हो गई

तुझ में तो एक ख़ू-ए-जफ़ा और हो गई
मैं और हो गया न वफ़ा और हो गई

गुल का कहीं निशाँ है न बुलबुल का ज़िक्र है
दो रोज़ में चमन की हवा और हो गई

आमद की सुन के खोली थी बीमार-ए-ग़म ने आँख
तुम आ गए उमीदे-ए-शिफ़ा और हो गई

बिन्त-ए-इनब तो रिंदों को यूँही मुबाह थी
ज़ाहिद नज़र पड़ा तो रवा और हो गई

शक्ल-ए-कु़बूल हो के फिरी आसमान से
तासीर हो गई तो दुआ और हो गई

याद आ गई जो का’बे में आबरू की ऐ ‘वहीद’
अपनी नमाज़-ए-इश्क़ अदा और हो गई

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By: Waheed Allahabadi

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