कविता

मैंने पल भर के लिए

Published by
Amrita Pritam

मैंने पल भर के लिए –आसमान को मिलना था
पर घबराई हुई खड़ी थी ….
कि बादलों की भीड़ से कैसे गुजरूंगी ..

कई बादल स्याह काले थे
खुदा जाने -कब के और किन संस्कारों के
कई बादल गरजते दिखते
जैसे वे नसीब होते हैं राहगीरों के

कई बादल शुकते ,चक्कर खाते
खंडहरों के खोल से उठते ,खतरे जैसे
कई बादल उठते और गिरते थे
कुछ पूर्वजों कि फटी पत्रियों जैसे

कई बादल घिरते और घूरते दिखते
कि सारा आसमान उनकी मुट्ठी में हो
और जो कोई भी इस राह पर आये
वह जर खरीद गुलाम की तरह आये ..

मैं नहीं जानती कि क्या और किसे कहूँ
कि काया के अन्दर –एक आसमान होता है
और उसकी मोहब्बत का तकाजा ..
वह कायनाती आसमान का दीदार मांगता है

पर बादलों की भीड़ का यह जो भी फ़िक्र था
यह फ़िक्र उसका नहीं –मेरा था
उसने तो इश्क की कानी खा ली थी
और एक दरवेश की मानिंद उसने
मेरे श्वाशों कि धुनी राम ली थी
मैंने उसके पास बैठ कर धुनी की आग छेड़ी
कहा-ये तेरी और मेरी बातें…
पर यह बातें–बादलों का हुजूम सुनेगा
तब बता योगी ! मेरा क्या बनेगा ?

वह हंसा—
नीली और आसमानी हंसी
कहने लगा–
ये धुंए के अम्बार होते हैं—
घिरना जानते
गर्जना भी जानते
निगाहों की वर्जना भी जानते
पर इनके तेवर
तारों में नहीं उगते
और नीले आसमान की देही पर
इल्जाम नहीं लगते…

मैंने फिर कहा–
कि तुम्हे सीने में लपेट कर
मैं बादलों की भीड़ से
कैसे गुजरूंगी ?
और चक्कर खाते बादलों से
कैसे रास्ता मागूंगी?

खुदा जाने —
उसने कैसी तलब पी थी
बिजली की लकीर की तरह
उसने मुझे देखा,
कहा —
तुम किसी से रास्ता न मांगना
और किसी भी दिवार को
हाथ न लगाना
न ही घबराना
न किसी के बहलावे में आना
बादलों की भीड़ में से
तुम पवन की तरह गुजर जाना…

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Amrita Pritam