तो रफ़ता रफ़ता यूँही किसी रोज़ मर न जाओ
अगर सफ़र तुम नहीं करोगे
किताबे हस्ती नहीं पढ़ोगे
न कोई नग़मा हयात का तुम कभी सुनोगे
न ख़ुद को पहचान ही सकोगे
तो रफ़ता रफ़ता यूँही किसी रोज़ मर न जाओ
अगर ख़ुदी अपनी मार दोगे
मदद को आगे नहीं बढ़ोगे
तो रफ़ता रफ़ता यूँही किसी रोज़ मर न जाओ
तराश कर अपनी ख़ू के शह पर
हमेशा इक राह से गुजर कर
न रोज़ो शब को बदल सकोगे
न रंग तस्वीर में भरोगे
न अजनबियत भुला के हर शख़्स से मिलोगे
तो रफ़ता रफ़ता यूँही किसी रोज़ मर न जाओ
अगर तुम्हारा जुनून भी ना गुजीर होगा
तुम्हारे जज़्बात का तलातुम लकीर का इक फकीर होगा
तुम्हारी आँखों की रोशनी माँद हो न जाए
तुम्हारा दिल डूबता हुआ चाँद हो न जाए
तो रफ़ता रफ़ता यूँही किसी रोज़ मर न जाओ
जो आफ़ते नागहां के डर से
जो बेवजह ख़ौफ़ के असर से
तुम अपने ख़्वाबों का जब ताक़ुब नहीं करोगे
और इक दफ़ा अपनी ज़िंदगी में
बदन की सरहद से बाहर आकर नहीं चलोगे
तो रफ़ता रफ़ता यूँही किसी रोज़ मर न जाओ…