वो कैसी औरतें थीं…?
जो गीली लकड़ियों को फूँककर चूल्हा जलाती थीं
जो सिल पर सुर्ख़ मिर्चें पीसकर सालन पकाती थीं
सुबह से शाम तक मसरूफ़ लेकिन मुस्कराती थीं
भरी दोपहर में सर अपना ढँककर मिलने आती थीं
जो पंखे हाथ के झलती थीं और बस पान खाती थीं
जो दरवाज़े पे रुककर देर तक रस्में निभाती थीं
पलंगों पर नफ़ासत से दरी-चादर बिछाती थीं
बसद इसरार मेहमानों को सरहाने बिठाती थीं
अगर गर्मी ज़्यादा हो तो रूहअफ़्ज़ा पिलाती थीं
जो अपनी बेटियों को स्वेटर बुनना सिखाती थीं
सिलाई की मशीनों पर कड़े रोज़े बिताती थीं
बड़ी प्लेटों में जो इफ़्तार के हिस्से बनाती थीं
जो कलमे काढ़कर लकड़ी के फ़्रेमों में सजाती थीं
दुआएँ फूँककर बच्चों को बिस्तर पर सुलाती थीं
जो अपनी जा-नमाज़े मोड़कर तकिया लगाती थीं
कोई साएल जो दस्तक दे, उसे खाना खिलाती थीं
पड़ोसन माँग ले कुछ बाख़ुशी देती-दिलाती थीं
जो रिश्तों को बरतने के कई नुस्ख़े बनाती थीं
मुहल्ले में कोई मर जाए तो आँसू बहाती थीं
कोई बीमार पड़ जाए तो उसके पास जाती थीं
कोई त्योहार हो तो ख़ूब मिल-जुलकर मनाती थीं
वो कैसी औरतें थीं…?
मैं जब घर अपने जाती हूँ तो फ़ुर्सत के ज़मानों में
उन्हें ही ढूँढती फिरती हूँ गलियों और मकानों में
किसी मीलाद में, जुज़दान में, तस्बीह दानों में
किसी बर-आमदे के ताक़ पर, बावर्चीख़ानों में
मगर अपना ज़माना साथ लेकर खो गई हैं वो
किसी इक क़ब्र में सारी की सारी सो गई हैं वो…
वो कैसी औरतें थीं…