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ज़फ़र अज्मी के चुनिंदा शेर

ये अलग बात कि वो दिल से किसी और का था
बात तो उस ने हमारी भी ब-ज़ाहिर रक्खी


बजा है ज़िंदगी से हम बहुत रहे नाराज़
मगर बताओ ख़फ़ा तुम से भी कभू हुए हैं


किसी के रास्ते की ख़ाक में पड़े हैं ‘ज़फ़र’
मता-ए-उम्र यही आजिज़ी निकलती है


सब बड़े ज़ोम से आए थे नए सूरत-गर
सब के दामन से वही ख़्वाब पुराने निकले


ना-ख़ुदा छोड़ गए बीच भँवर में तो ‘ज़फ़र’
एक तिनके के सहारे ने कहा बिस्मिल्लाह


कास-ए-दर्द लिए कब से खड़े सोचते हैं
दस्त-ए-इम्कान से क्या चीज़ न जाने निकले


ये अहद क्या है कि सब पर गिराँ गुज़रता है
ये क्या तिलिस्म है क्या इम्तिहाँ गुज़रता है


इक ख़ौफ़-ए-दुश्मनी जो तआक़ुब में सब के है
इक हर्फ़-ए-लुत्फ़ जो कहीं ग़ाएब है शहर में


ख़याल-ए-ताज़ा से करते हैं ख़्वाब-ए-नौ तख़्लीक़
‘ज़फ़र’ ज़मीनें नई आसमाँ से खींचते हैं


इक ऐसा वक़्त भी सैर-ए-चमन में देखा है
कली के सीने से जब बे-कली निकलती है


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By: Zafar Ajmi

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