ग़ज़ल

ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती

Published by
Dushyant Kumar

ये ज़ुबाँ हमसे सी नहीं जाती
ज़िन्दगी है कि जी नहीं जाती

इन सफ़ीलों में वो दरारे हैं
जिनमें बस कर नमी नहीं जाती

देखिए उस तरफ़ उजाला है
जिस तरफ़ रौशनी नहीं जाती

शाम कुछ पेड़ गिर गए वरना
बाम तक चाँदनी नहीं जाती

एक आदत-सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती

मयकशो मय ज़रूर है लेकिन
इतनी कड़वी कि पी नहीं जाती

मुझको ईसा बना दिया तुमने
अब शिकायत भी की नहीं जाती

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Dushyant Kumar