कविता

बरगद में उलझ गया काँव

Published by
Kishor Kabra

बिखर गया पंखुरी-सा दिन,
फूल गई सेमल-सी रात

पूरब में अंकुराया चाँद,
जाग गई सपनों की माँद
आ धमका कमरे के बीच,
अंधियारा खिड़की को फाँद,
ओठों पर आ बैठा मौन,
बंद हुई सूरज की बात

अभिलाषा ढूँढ़ रही ठाँव,
आँसू के फिसल गए पाँव
पलकों पर आ बैठी ऊँघ,
बरगद में उलझ गया काँव
निंदिया के घर आई आज,
तारों की झिलमिल बारात

फुनगी पर बैठ गया छंद,
कलियों के द्वार हुए बंद
पछुवा के हाथों को थाम,
डोल रहा पागल मकरंद
सिमट गई निमिया की देह,
सिहर गया पीपल का पात।

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Kishor Kabra