कविता

तुम्हे लगता है – किशोर काबरा की कविता

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Kishor Kabra

तुम्हे लगता है
बड़े सवेरे
चिड़िया गीत गाकर
शायद खुश हो रही है
तुम्हे क्या पता
वह इस बहाने
अपना कोई दुखड़ा रो रही है।

तुम्हे लगता है
भरी दोपहरी में
पेड़ के नीचे
छाया
शायद आराम से लेटी है
तुम्हे क्या पता
वह सूरज के डर से वहाँ छिपी बैठी है।

तुम्हे लगता है
आधी रात को पूनम
चांदनी में नहा नहाकर शायद
बाली हो रही है
तुम्हे क्या पता
इसी दुख में अमावस
साँवली हो रही है।

अब तलक हम देखते रहे हैं
दूसरों को अपनी नजर से।
क्यों न हम अब उन्हें देखे
अपनी नजर से।

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Kishor Kabra