Categories: ग़ज़ल

तंज़ के तीर मिरी सम्त चलाते क्यूँ हो

Published by
Laiq Aajiz

तंज़ के तीर मिरी सम्त चलाते क्यूँ हो
तुम अगर दोस्त हो तो दिल को दिखाते क्यूँ हो

देख ले ये भी ज़माना कि हो तुम कितने अमीर
अपनी पलकों के नगीने को छुपाते क्यूँ हो

ऐ मिरे पाँव के छालो मिरे हम-राह रहो
इम्तिहाँ सख़्त है तुम छोड़ के जाते क्यूँ हो

तिश्नगी से मिरी बरसों की शनासाई है
बीच में नहर की दीवार उठाते क्यूँ हो

मेरी तारीक शबों में है उजाला इन से
चाँद से ज़ख़्मों पे मरहम ये लगाते क्यूँ हो

उस से जब अहद-ए-वफ़ा कर ही लिया है ‘आजिज़’
बे-वफ़ा कह के उसे अश्क बहाते क्यूँ हो

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Laiq Aajiz