तंज़ के तीर मिरी सम्त चलाते क्यूँ हो
तुम अगर दोस्त हो तो दिल को दिखाते क्यूँ हो
देख ले ये भी ज़माना कि हो तुम कितने अमीर
अपनी पलकों के नगीने को छुपाते क्यूँ हो
ऐ मिरे पाँव के छालो मिरे हम-राह रहो
इम्तिहाँ सख़्त है तुम छोड़ के जाते क्यूँ हो
तिश्नगी से मिरी बरसों की शनासाई है
बीच में नहर की दीवार उठाते क्यूँ हो
मेरी तारीक शबों में है उजाला इन से
चाँद से ज़ख़्मों पे मरहम ये लगाते क्यूँ हो
उस से जब अहद-ए-वफ़ा कर ही लिया है ‘आजिज़’
बे-वफ़ा कह के उसे अश्क बहाते क्यूँ हो