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रिटायरमेंट – अंजना टंडन की कविता

लौट आना था
और पलट आयी थी मैं
उस आँगन
जहाँ टब भर के डूबते कपड़े
अलगनी पर जाने से पहले मेरी बाट जोह रहे थे
पतीले में खौलती दाल को
इंतज़ार था कलाई की रुनझुन का

चेहरा और दैनिक दिनचर्या
आहिस्ता-आहिस्ता इतने रंगहीन हो गए थे
कि उन पर नज़र रखना बहुत ज़रूरी हो गया था

जो काम कभी नहीं किया
वो घण्टों, महीनों, सालों तक अब करूँगी
पर जो काम हरदम करना चाहती थी
जो ज़िन्दगी को पटरी पर रखता था
रोज़ काम पर निकलना, बतियाना, हरियाना
कितना दूभर है ये सोचना भी कि वो अब
कभी लौटकर इतना नहीं आएगा
जितना घर से कॉलेज की दूरी

ये मन के छोटे-छोटे राज़
ना सम्भले जा रहे अवसाद
कितने अनबोले संवाद
छूटे की बड़ी कसक है
जानती हूँ ये तो रहेगी
और रहेगी
अंदर कुछ खौलने और
उफ़न जाने की कशमकश भी साथ

इस दिवाली सोचूँगी
ज़िन्दगी में कुछ-कुछ उन रंगों
के उड़ जाने के बारे में
जो पिछले साल तक दोस्ती के
शेड कार्ड में दिए गए थे

पर फिर
ज़िन्दगी की गाड़ी पटरी पर रखने
और अनजिए लम्हों के बारे में सोचकर
दूध और धोबी का हिसाब
तसल्ली से एक बार फिर लगाती हूँ
और सच में
तरोताज़ा होने के लिए
दिन में चद्दर तान लम्बलेट हो जाती हूँ।

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By: Anjana Tandon

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