ज़ुलेख़ा बे-ख़िरद आवारा लैला बद-मज़ा शीरीं
सभी मजबूर हैं दिल से मोहब्बत आ ही जाती है
तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही
तू नहीं और सही और नहीं और सही
हो मोहब्बत की ख़बर कुछ तो ख़बर फिर क्यूँ हो
ये भी इक बे-ख़बरी है कि ख़बर रखते हैं
रहम कर मस्तों पे कब तक ताक़ पर रक्खेगा तू
साग़र-ए-मय साक़िया ज़ाहिद का ईमाँ हो गया
बोसा देने की चीज़ है आख़िर
न सही हर घड़ी कभी ही सही
न ये है न वो है न मैं हूँ न तू है
हज़ारों तसव्वुर और इक आरज़ू है
न हो आरज़ू कुछ यही आरज़ू है
फ़क़त मैं ही मैं हूँ तो फिर तू ही तू है
कुफ़्र और इस्लाम में देखा तो नाज़ुक फ़र्क़ था
दैर में जो पाक था का’बे में वो नापाक था
है अगर कुछ वफ़ा तो क्या कहने
कुछ नहीं है तो दिल-लगी ही सही
वाइ’ज़ ये मय-कदा है न मस्जिद कि इस जगह
ज़िक्र-ए-हलाल पर भी है फ़तवा हराम का