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क़लक़ मेरठी के चुनिंदा शेर

बे-तकल्लुफ़ मक़ाम-ए-उल्फ़त है
दाग़ उट्ठे कि आबला बैठे


ख़ुद को कभी न देखा आईने ही को देखा
हम से तो क्या कि ख़ुद से ना-आश्ना रहा है


हम उस कूचे में उठने के लिए बैठे हैं मुद्दत से
मगर कुछ कुछ सहारा है अभी बे-दस्त-ओ-पाई का


किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई
ग़ैर यूसुफ़ नहीं ग़ुलाम नहीं


कौन जाने था उस का नाम-ओ-नुमूद
मेरी बर्बादी से बना है इश्क़


पड़ा है दैर-ओ-काबा में ये कैसा ग़ुल ख़ुदा जाने
कि वो पर्दा-नशीं बाहर न आ जाने न जा जाने


जो कहता है वो करता है बर-अक्स उस के काम
हम को यक़ीं है वा’दा-ए-ना-उस्तवार का


किधर क़फ़स था कहाँ हम थे किस तरफ़ ये क़ैद
कुछ इत्तिफ़ाक़ है सय्याद आब-ओ-दाने का


दयार-ए-यार का शायद सुराग़ लग जाता
जुदा जो जादा-ए-मक़सूद से सफ़र होता


बुत-ख़ाने की उल्फ़त है न काबे की मोहब्बत
जूयाई-ए-नैरंग है जब तक कि नज़र है


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By: Qalak Merathi

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