मोहब्बत वो है जिस में कुछ किसी से हो नहीं सकता
जो हो सकता है वो भी आदमी से हो नहीं सकता
तू देख तो उधर कि जो देखा न जाए फिर
तू गुफ़्तुगू करे तो कभी गुफ़्तुगू न हो
तिरी नवेद में हर दास्ताँ को सुनते हैं
तिरी उमीद में हर रहगुज़र को देखते हैं
जबीन-ए-पारसा को देख कर ईमाँ लरज़ता है
मआ’ज़-अल्लाह कि क्या अंजाम है इस पारसाई का
फ़िक्र-ए-सितम में आप भी पाबंद हो गए
तुम मुझ को छोड़ दो तो मैं तुम को रिहा करूँ
कसरत-ए-सज्दा से पशेमाँ हैं
कि तिरा नक़्श-ए-पा मिटा बैठे
मूसा के सर पे पाँव है अहल-ए-निगाह का
उस की गली में ख़ाक अड़ी कोह-ए-तूर की
क्यूँकर न आस्तीं में छुपा कर पढ़ें नमाज़
हक़ तो है ये अज़ीज़ हैं बुत ही ख़ुदा के बा’द
ज़हे क़िस्मत कि उस के क़ैदियों में आ गए हम भी
वले शोर-ए-सलासिल में है इक खटका रिहाई का
मैं राज़दाँ हूँ ये कि जहाँ था वहाँ न था
तू बद-गुमाँ है वो कि जहाँ है वहाँ नहीं