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क़लक़ मेरठी के चुनिंदा शेर

पहले रख ले तू अपने दिल पर हाथ
फिर मिरे ख़त को पढ़ लिखा क्या है


न लगती आँख तो सोने में क्या बुराई थी
ख़बर कुछ आप की होती तो बे-ख़बर होता


तुझ से ऐ ज़िंदगी घबरा ही चले थे हम तो
पर तशफ़्फ़ी है कि इक दुश्मन-ए-जाँ रखते हैं


अम्न और तेरे अहद में ज़ालिम
किस तरह ख़ाक-ए-रहगुज़र बैठे


दिल के हर जुज़्व में जुदाई है
दर्द उठे आबला अगर बैठे


गली से अपनी इरादा न कर उठाने का
तिरा क़दम हूँ न फ़ित्ना हूँ मैं ज़माने का


झगड़ा था जो दिल पे उस को छोड़ा
कुछ सोच के सुल्ह कर गए हम


शहर उन के वास्ते है जो रहते हैं तुझ से दूर
घर उन का फिर कहाँ जो तिरे दिल में घर करें


वो ज़िक्र था तुम्हारा जो इंतिहा से गुज़रा
ये क़िस्सा है हमारा जो ना-तमाम निकला


ख़ुदा से डरते तो ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न करते हम
कि याद-ए-बुत से हरम में बुका न करते हम


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By: Qalak Merathi

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