रास्ता है कि कटता जाता है
फ़ासला है कि कम नहीं होता
वक़्त करता है परवरिश बरसों
हादिसा एक दम नहीं होता
रंग-ए-महफ़िल चाहता है इक मुकम्मल इंक़लाब
चंद शम्ओं के भड़कने से सहर होती नहीं
कुछ देर किसी ज़ुल्फ़ के साए में ठहर जाएँ
‘क़ाबिल’ ग़म-ए-दौराँ की अभी धूप कड़ी है
तुम न मानो मगर हक़ीक़त है
इश्क़ इंसान की ज़रूरत है
ज़माना दोस्त है किस किस को याद रक्खोगे
ख़ुदा करे कि तुम्हें मुझ से दुश्मनी हो जाए
हम बदलते हैं रुख़ हवाओं का
आए दुनिया हमारे साथ चले
अब ये आलम है कि ग़म की भी ख़बर होती नहीं
अश्क बह जाते हैं लेकिन आँख तर होती नहीं
तज़ाद-ए-जज़्बात में ये नाज़ुक मक़ाम आया तो क्या करोगे
मैं रो रहा हूँ तुम हँस रहे हो मैं मुस्कुराया तो क्या करोगे
बहुत काम लेने हैं दर्द-ए-जिगर से
कहीं ज़िंदगी को क़रार आ न जाए