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क़ाबिल अजमेरी के चुनिंदा शेर

हम ने उस के लब ओ रुख़्सार को छू कर देखा
हौसले आग को गुलज़ार बना देते हैं


हैरतों के सिलसिले सोज़-ए-निहाँ तक आ गए
हम नज़र तक चाहते थे तुम तो जाँ तक आ गए


तुम को भी शायद हमारी जुस्तुजू करनी पड़े
हम तुम्हारी जुस्तुजू में अब यहाँ तक आ गए


कुछ और बढ़ गई है अंधेरों की ज़िंदगी
यूँ भी हुआ है जश्न-ए-चराग़ाँ कभी कभी


ख़ुद तुम्हें चाक-ए-गरेबाँ का शुऊर आ जाएगा
तुम वहाँ तक आ तो जाओ हम जहाँ तक आ गए


उन की पलकों पर सितारे अपने होंटों पे हँसी
क़िस्सा-ए-ग़म कहते कहते हम कहाँ तक आ गए


ग़म-ए-जहाँ के तक़ाज़े शदीद हैं वर्ना
जुनून-ए-कूचा-ए-दिलदार हम भी रखते हैं


ये गर्दिश-ए-ज़माना हमें क्या मिटाएगी
हम हैं तवाफ़-ए-कूचा-ए-जानाँ किए हुए


ये सब रंगीनियाँ ख़ून-ए-तमन्ना से इबारत हैं
शिकस्त-ए-दिल न होती तो शिकस्त-ए-ज़िंदगी होती


मुझे तो इस दर्जा वक़्त-ए-रुख़्सत सुकूँ की तल्क़ीन कर रहे हो
मगर कुछ अपने लिए भी सोचा मैं याद आया तो क्या करोगे


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By: Qabil Ajmeri

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