जी है ये बिन लगे नहीं रहता
कुछ तो हो शग़्ल-ए-आशिक़ी ही सही
क्या ख़ाना-ख़राबों का लगे तेरे ठिकाना
उस शहर में रहते हैं जहाँ घर नहीं होता
तेरा दीवाना तो वहशत की भी हद से निकला
कि बयाबाँ को भी चाहे है बयाबाँ होना
अश्क के गिरते ही आँखों में अंधेरा छा गया
कौन सी हसरत का यारब ये चराग़-ए-ख़ाना था
अंदाज़ा आदमी का कहाँ गर न हो शराब
पैमाना ज़िंदगी का नहीं गर सुबू न हो
नाला करता हूँ लोग सुनते हैं
आप से मेरा कुछ कलाम नहीं
आसमाँ अहल-ए-ज़मीं से क्या कुदूरत-नाक था
मुद्दई भी ख़ाक थी और मुद्दआ’ भी ख़ाक था
उस से न मिलिए जिस से मिले दिल तमाम उम्र
सूझी हमें भी हिज्र में आख़िर को दूर की
वो संग-दिल अंगुश्त-ब-दंदाँ नज़र आवे
ऐसा कोई सदमा मिरी जाँ पर नहीं होता
वाइ’ज़ ने मय-कदे को जो देखा तो जल गया
फैला गया चराँद शराब-ए-तहूर की