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आदमीनामा – असना बद्र की नज़्म

मेरी प्यारी औरत उषा सिंगर लेकर क्या समझीं
‏सीने वाले सूट कमीज दोशाले हम ही होते हैं

‏घर की हांडी भून के किस ख़ुशफ़हमी में तुम मगन रहीं
‏बड़े होटलों में कुल जाएके वाले हम ही होते ‏हैं

‏हम ही गुलों को ग़ाज़ा मल कर महफ़िल में ले जाते हैं
‏और ख़ुशबू के तन पर छुभते भाले हम ही होते हैं

‏हम ही तुमको कोठे पर ले जा कर दाम लगाते हैं
‏और तुम्हारा रक़्स देख मतवाले हम ही होते हैं

‏दफ़्तर की रौनक़ की ख़ातिर इक कुर्सी दे देते हैं
‏और चाँद के गिर्द चमकते हाले हम ही होते हैं

‏तुम अपनी तारीफ़ें सुन कर कैसी ख़ुश हो जाती हो
‏बुन्ने वाले ये मकड़ी के जाले हम ही होते हैं

‏तुम क्या दोगी साथ हमारा शाना ब शाना चलने में
‏सारे महकमे सारे काम सम्भाले हम ही होते हैं

‏तुमने घर और दफ़्तर करके समझा मैदां जीत लिया
‏अक़्लो खिरद पर डालने वाले ताले हम ही होते हैं

‏तुम को रात के अंधेरे में छोड़ के बे परवाई से
‏सूरज की आँखों में आँखें डाले हम ही होते हैं

‏तुम मिट्टी की मूरत हो आवाज़ का तुम से क्या रिश्ता
‏सजा के रखने वाले तुम्हें शिवाले हम ही होते हैं!

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By: Asna Badr

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