नज़्म

रूह-ए-तग़ज़्ज़ुल – लाला अनूप चंद की नज़्म

Published by
Lala Anoop Chand Aaftab Panipati

मैं अपने क़ल्ब में जब नूर-ए-इरफ़ाँ देख लेता हूँ
तो हर ज़र्रा में इक ख़ुर्शीद-ए-ताबाँ देख लेता हूँ

मिटा कर अपनी हस्ती राह-ए-हक़ में खुल गईं आँखें
कि मर कर ज़िंदगी का राज़-ए-पिन्हाँ देख लेता हूँ

हक़ीक़ी इश्क़ का जज़्बा है दिल में जिस की बरकत से
हयात और मौत के असरार-ए-उर्यां देख लेता हूँ

किए हैं इश्क़ और उल्फ़त के सारे मरहले जब तय
तो दुनिया भर की हर मुश्किल को आसाँ देख लेता हूँ

छुपा सकता नहीं तू ख़ुद को मुझ से लाख पर्दों में
तिरी सूरत हर इक शय में नुमायाँ देख लेता हूँ

कहानी क्या सुनाऊँ दिल-जलों की ग़म के मारों की
कि उठता चार-सू इक ग़म का तूफ़ाँ देख लेता हूँ

तड़प है दर्द है रंज-ओ-अलम है बे-क़रारी है
ये मुल्क और क़ौम का हाल-ए-परेशाँ देख लेता हूँ

इसी प्यारे वतन हिन्दोस्ताँ की ग़ैर हालत है
कि जिस पर ग़ैर को भी आज नाज़ाँ देख लेता हूँ

निकलती है अगर इक आह भी मज़लूम के दिल से
ज़मीं से अर्श तक हर शय को लर्ज़ां देख लेता हूँ

घटाएँ ग़म की सर पर छा गईं जो हिन्द वालों के
दर-ओ-दीवार को भारत के गिर्यां देख लेता हूँ

अभी हिन्दोस्ताँ के दिन भले आए नहीं शायद
कि मैं लड़ते हुए हिन्दू मुसलमाँ देख लेता हूँ

न क्यूँ ऐ ‘आफ़्ताब’ आए नज़र उम्मीद की सूरत
कि जब तकलीफ़ में राहत के सामाँ देख लेता हूँ

रूह-ए-तग़ज़्ज़ुल

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Lala Anoop Chand Aaftab Panipati