मिरे बच्चों में सारी आदतें मौजूद हैं मेरी
तो फिर इन बद-नसीबों को न क्यूँ उर्दू ज़बाँ आई
फिर कर्बला के ब’अद दिखाई नहीं दिया
ऐसा कोई भी शख़्स कि प्यासा कहें जिसे
ये सोच कर कि तिरा इंतिज़ार लाज़िम है
तमाम उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा
ऐ ख़ाक-ए-वतन तुझ से मैं शर्मिंदा बहुत हूँ
महँगाई के मौसम में ये त्यौहार पड़ा है
फेंकी न ‘मुनव्वर’ ने बुज़ुर्गों की निशानी
दस्तार पुरानी है मगर बाँधे हुए है
किसी दिन मेरी रुस्वाई का ये कारन न बन जाए
तुम्हारा शहर से जाना मिरा बीमार हो जाना
हर चेहरे में आता है नज़र एक ही चेहरा
लगता है कोई मेरी नज़र बाँधे हुए है
खिलौनों के लिए बच्चे अभी तक जागते होंगे
तुझे ऐ मुफ़्लिसी कोई बहाना ढूँड लेना है
भले लगते हैं स्कूलों की यूनिफार्म में बच्चे
कँवल के फूल से जैसे भरा तालाब रहता है
निकलने ही नहीं देती हैं अश्कों को मिरी आँखें
कि ये बच्चे हमेशा माँ की निगरानी में रहते हैं