शेर

ज़फ़र गोरखपुरी के चुनिंदा शेर

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Zafar Gorakhpuri

देखें क़रीब से भी तो अच्छा दिखाई दे
इक आदमी तो शहर में ऐसा दिखाई दे


कितनी आसानी से मशहूर किया है ख़ुद को
मैं ने अपने से बड़े शख़्स को गाली दे कर


मेरी इक छोटी सी कोशिश तुझ को पाने के लिए
बन गई है मसअला सारे ज़माने के लिए


छत टपकती थी अगरचे फिर भी आ जाती थी नींद
मैं नए घर में बहुत रोया पुराने के लिए


आसमाँ ऐसा भी क्या ख़तरा था दिल की आग से
इतनी बारिश एक शोले को बुझाने के लिए


मैं ‘ज़फ़र’ ता-ज़िंदगी बिकता रहा परदेस में
अपनी घर-वाली को इक कंगन दिलाने के लिए


अपने अतवार में कितना बड़ा शातिर होगा
ज़िंदगी तुझ से कभी जिस ने शिकायत नहीं की


अभी ज़िंदा हैं हम पर ख़त्म कर ले इम्तिहाँ सारे
हमारे बाद कोई इम्तिहाँ कोई नहीं देगा


कैसी शब है एक इक करवट पे कट जाता है जिस्म
मेरे बिस्तर में ये तलवारें कहाँ से आ गईं


आँखें यूँ ही भीग गईं क्या देख रहे हो आँखों में
बैठो साहब कहो सुनो कुछ मिले हो कितने साल के बाद


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Zafar Gorakhpuri