नज़्म

अल्मिया – अहमद फ़राज़ की नज़्म

Published by
Ahmad Faraz

किस तमन्नासे ये चाहा था कि इक रोज़ तुझे
साथ अपने लिए उस शहर को जाऊँगा जिसे
मुझको छोड़े हुए,भूले हुए इक उम्र हुई

हाय वो शहर कि जो मेरा वतन है फिर भी
उसकी मानूस फ़ज़ाओं से रहा बेग़ाना
मेरा दिल मेरे ख़्यालों की तरह दीवाना

आज हालात का ये तंज़े-जिगरसोज़ तो देख
तू मिरे शह्र के इक हुजल-ए-ज़र्रीं में मकीं
और मैं परदेस में जाँदाद-ए-यक-नाने-जवीं

अल्मिया

634
Published by
Ahmad Faraz