किस तमन्नासे ये चाहा था कि इक रोज़ तुझे
साथ अपने लिए उस शहर को जाऊँगा जिसे
मुझको छोड़े हुए,भूले हुए इक उम्र हुई
हाय वो शहर कि जो मेरा वतन है फिर भी
उसकी मानूस फ़ज़ाओं से रहा बेग़ाना
मेरा दिल मेरे ख़्यालों की तरह दीवाना
आज हालात का ये तंज़े-जिगरसोज़ तो देख
तू मिरे शह्र के इक हुजल-ए-ज़र्रीं में मकीं
और मैं परदेस में जाँदाद-ए-यक-नाने-जवीं
अल्मिया