वाह क्या राह दिखाई है हमें मुर्शिद ने
कर दिया का’बे को गुम और कलीसा न मिला
हर चंद बगूला मुज़्तर है इक जोश तो उस के अंदर है
इक वज्द तो है इक रक़्स तो है बेचैन सही बर्बाद सही
जो ज़मीं कूचा-ए-क़ातिल में निकलती है नई
वक़्फ़ वो बहर-ए-मज़ार-ए-शोहदा होती है
ग़म-ख़ाना-ए-जहाँ में वक़अत ही क्या हमारी
इक ना-शुनीदा उफ़ हैं इक आह-ए-बे-असर हैं
पर्दे का मुख़ालिफ़ जो सुना बोल उठीं बेगम
अल्लाह की मार इस पे अलीगढ़ के हवाले
दिला दे हम को भी साहब से लोएलटी का परवाना
क़यामत तक रहे सय्यद तिरे आनर का अफ़्साना