शेर

अकबर इलाहाबादी के चुनिंदा शेर

Published by
Akbar Allahabadi

कॉलेज से आ रही है सदा पास पास की
ओहदों से आ रही है सदा दूर दूर की


बुत-कदे में शोर है ‘अकबर’ मुसलमाँ हो गया
बे-वफ़ाओं से कोई कह दे कि हाँ हाँ हो गया


किस नाज़ से कहते हैं वो झुँझला के शब-ए-वस्ल
तुम तो हमें करवट भी बदलने नहीं देते


पड़ जाएँ मिरे जिस्म पे लाख आबले ‘अकबर’
पढ़ कर जो कोई फूँक दे अप्रैल मई जून


दावा बहुत बड़ा है रियाज़ी में आप को
तूल-ए-शब-ए-फ़िराक़ को तो नाप दीजिए


समझ में साफ़ आ जाए फ़साहत इस को कहते हैं
असर हो सुनने वाले पर बलाग़त इस को कहते हैं


एक काफ़िर पर तबीअत आ गई
पारसाई पर भी आफ़त आ गई


तहसीन के लायक़ तिरा हर शेर है ‘अकबर’
अहबाब करें बज़्म में अब वाह कहाँ तक


कुछ तर्ज़-ए-सितम भी है कुछ अंदाज़-ए-वफ़ा भी
खुलता नहीं हाल उन की तबीअत का ज़रा भी


पब्लिक में ज़रा हाथ मिला लीजिए मुझ से
साहब मिरे ईमान की क़ीमत है तो ये है


996

Page: 1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13

Published by
Akbar Allahabadi