क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ
जब ग़म हुआ चढ़ा लीं दो बोतलें इकट्ठी
मुल्ला की दौड़ मस्जिद ‘अकबर’ की दौड़ भट्टी
नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें
मर्द हैं वो जो ज़माने को बदल देते हैं
दिल वो है कि फ़रियाद से लबरेज़ है हर वक़्त
हम वो हैं कि कुछ मुँह से निकलने नहीं देते
शैख़ अपनी रग को क्या करें रेशे को क्या करें
मज़हब के झगड़े छोड़ें तो पेशे को क्या करें
सीने से लगाएँ तुम्हें अरमान यही है
जीने का मज़ा है तो मिरी जान यही है
तय्यार थे नमाज़ पे हम सुन के ज़िक्र-ए-हूर
जल्वा बुतों का देख के नीयत बदल गई
ये दिलबरी ये नाज़ ये अंदाज़ ये जमाल
इंसाँ करे अगर न तिरी चाह क्या करे
अक़्ल में जो घिर गया ला-इंतिहा क्यूँकर हुआ
जो समा में आ गया फिर वो ख़ुदा क्यूँकर हुआ
लगावट की अदा से उन का कहना पान हाज़िर है
क़यामत है सितम है दिल फ़िदा है जान हाज़िर है