नज़्म

तीसरी पाली – अख़्तर राही की नज़्म

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Akhtar Rahi

वो भी इक अच्छा मुसव्विर था
पिछले बल्वे में ही उस के
दोनों बाज़ू कट गए
और उस बल्वे में उस की
दोनों आँखें बुझ गईं
नूर-ए-फ़ितरत की सभी शक्लें मिटीं

बड़ी मुश्किल से उस अंधे मुसव्विर को
एक कमरा चाल में ही मिल गया
और पड़ोसन के वसीले से जवाँ बेटी को भी
कार-ख़ाने में सदा की तीसरी पाली मिली
अब वो माँ की गोद में रातों को सोती भी नहीं
माँग अफ़्शाँ चूड़ियों की ज़िद में रोती भी नहीं

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