loader image

तजस्सुस – अख़्तर राही की नज़्म

इस सराए में मुसाफ़िर का क़याम
एक लम्हा बे-यक़ीनी का
जिस को जन्नत या जहन्नम जो भी कह लो
क्या किसी पे इंहिसार
हर कोई अपने अमल का ज़िम्मेदार

भूल कर भी ये न सोचो
कि मुक़द्दर भी बनाता है कोई
वर्ना जो है सामने चुप-चाप देखो
क्या भला है क्या बुरा
जब तलक सहने की ताक़त है सहो
हाल-ए-दिल अपना किसी से मत कहो
अब तो रस्मन ही ज़बाँ पर पुर्सिश-ए-अहवाल है
दम दिलासा प्यार हमदर्दी ख़ुलूस
ऐसे सब अल्फ़ाज़ सीने की लुग़त से उड़ चुके हैं

इस सराए में मुसाफ़िर का क़याम
मौत के खटके से मर जाने का नाम!

तजस्सुस

655

Add Comment

By: Akhtar Rahi

© 2023 पोथी | सर्वाधिकार सुरक्षित

Do not copy, Please support by sharing!