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दरवाज़ा – अनामिका की कविता

मैं एक दरवाज़ा थी
मुझे जितना पीटा गया
मैं उतना ही खुलती गई।

अन्दर आए आने वाले तो देखा–
चल रहा है एक वृहत्चक्र–
चक्की रुकती है तो चरखा चलता है
चरखा रुकता है तो चलती है कैंची-सुई
ग़रज़ यह कि चलता ही रहता है
अनवरत कुछ-कुछ!

…और अन्त में सब पर चल जाती है झाड़ू
तारे बुहारती हुई
बुहारती हुई पहाड़, वृक्ष, पत्थर–
सृष्टि के सब टूटे-बिखरे क़तरे जो
एक टोकरी में जमा करती जाती है
मन की दुछत्ती पर।

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By: Anamika

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