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तलाशी – अनामिका की कविता

उन्होंने कहा- ‘हैण्ड्स अप!’
एक-एक अंग फोड़कर मेरा
उन्होंने तलाशी ली

मेरी तलाशी में मिला क्या उन्हें?
थोड़े-से सपने मिले और चाँद मिला,
सिगरेट की पन्नी-भर,
माचिस-भर उम्मीद, एक अधूरी चिट्ठी
जो वे डीकोड नहीं कर पाए

क्योंकि वह सिन्धुघाटी सभ्यता के समय
मैंने लिखी थी
एक अभेद्य लिपि में
अपनी धरती को

“हलो धरती, कहीं चलो धरती,
कोल्हू का बैल बने गोल-गोल घूमें हम कब तक?
आओ, कहीं आज घूरते हैं तिरछा
एक अगिनबान बनकर
इस ग्रह-पथ से दूर…”

उन्होंने चिट्ठी मरोड़ी
और मुझे कोंच दिया काल-कोठरी में

अपनी क़लम से मैं लगातार
खोद रही हूँ तब से
काल-कोठरी में सुरंग

कान लगाकर सुनो
धरती की छाती में क्या बज रहा है!
क्या कोई छुपा हुआ सोता है?
और दूर उधर, पार सुरंग के, वहाँ
दिख रही है कि नहीं दिखती
एक पतली रोशनी
और खुला-खिला घास का मैदान!
कैसी ख़ुशनुमा कनकनी है!
हो सकता है – एक लोकगीत गुज़रा हो
कल रात इस राह से,
नन्हें-नन्हें पाँव उड़ते हुए से गए हैं
ओस नहायी घास पर

फ़िलहाल, बस एक परछाईं
ओस के होंठों पर
थरथराती-सी बची है

पहला एहसास किसी सृष्टि का
देखो तो-
टप-टप
टपकता है कैसे!

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By: Anamika

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