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सुनो स्त्री – अनुपमा विंध्यवासिनी की कविता

Published by
Anupma Vindhyavasini

सुनो, स्त्री!
सिखा दो अपने पैरों को
ज़मीन पर चलना क्योंकि
समाज जानता है
स्त्रियों के पर कतरना

तुम्हें आभास भी होता है कभी
किन-किन ज़ंजीरों में
जकड़ी हुई हो तुम?
घर से बाहर निकल पाने
और कुछेक अधिकार
प्राप्त कर लेने को
तुम समझती हो
समानता अर्जित कर लेना?

न जाने कितने मानकों पर
मूल्याँकन किया जाता है तुम्हारा,
तुम्हारा समूचा स्वरूप
बदल दिया जाता है
तुम्हारे विवाहोपरान्त
और तुम
अपनी आपत्ति तक नहीं जता पाती?
उस समय
तुम्हारी सारी शिक्षा और समझ
धरी की धरी रह जाती है
और तुम
बदल डालती हो स्वयं को,
कभी अपने नाम में परिवर्तन कर,
कभी अपने परिधान में परिवर्तन कर,
और कभी कुछ विशेष
विवाह-चिह्न धारण कर।
ये सारे परिवर्तन
सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही क्यों?
क्योंं नहीं डालता यह समाज
एक भी परिवर्तन
पुरुषों के हिस्से में?

कभी प्रश्न करो,
तुम्हारे विवाहोपरान्त
क्यों बदल देता है समाज
तुम्हारी पूरी दुनिया और
पुरुष आज़ादी से जीते रहते हैं
अपने अपरिवर्तित जीवन को?
तुम जब भी कोशिश करती हो
अपनी पुरानी पहचान
तलाशने की
तो यही समाज
परम्परा की बेड़ियों से
तुम्हारी चेतना को बांध देता है

सुनो, स्त्री!
तुम्हें यह समाज
उतनी ही स्वतन्त्रता देगा
जितनी कि अपर्याप्त हो
पितृसत्ता की जड़ें
हिला पाने के लिए,
तुम पढ़ोगी
और आगे बढ़ोगी
लेकिन एक समय में
ढल जाओगी उन्हीं परम्पराओं में
जिनमें वे स्त्रियाँ भी ढलीं
जो तुमसे कम शिक्षित थीं
और यदि तुममें
इतना साहस
आ ही जाए
कि तुम विरोध जता सको,
तो, ‘उद्दण्ड’ कहेगा तुम्हें
समानता का पक्षधर यह समाज।

इसीलिए
अब पीछे मत हटो
और
‘उद्दण्ड’ को बना लो
अपना प्रिय शब्द…

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Published by
Anupma Vindhyavasini