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औपन्यासिक – अज्ञेय की कविता

मैंने कहा : अपनी मनःस्थिति
मैं बता नहीं सकता। पर अगर
अपने को उपन्यास का चरित्र बताता, तो इस समय अपने को
एक शराबख़ाने में दिखाता, अकेले बैठकर
पीते हुए – इस कोशिश में कि सोचने की ताक़त
किसी तरह जड़ हो जाए।

कौन या कब अकेले बैठकर शराब पीता है?
जो या जब अपने को अच्छा नहीं लगता – अपने को
सह नहीं सकता।

उसने कहा : हूँ! कोई बात है भला? शराबख़ाना भी
(यह नहीं कि मुझे इस का कोई तज़ुरबा है, पर)
कोई बैठने की जगह होगी – वह भी अकेले?
मैं वैसे में अपने पात्र को
नदी किनारे बैठाती – अकेले उदास बैठकर कुढ़ने के लिए।

मैंने कहा : शराबख़ाना
न सही बैठने के लायक़ जगह! पर अपने शहर में
ऐसा नदी का किनारा कहाँ मिलेगा जो
बैठने लायक हो – उदासी में अकेले
बैठकर अपने पर कुढ़ने लायक़?

उसने कहा : अब मैं क्या करूँ अगर अपनी नदी का
ऐसा हाल हो गया है? पर कहीं तो ऐसी नदी
ज़रूर होगी?

मैंने कहा : सो तो है – यानी होगी। तो मैं
अपने उपन्यास का शराबख़ाना
क्या तुम्हारे उपन्यास की नदी के किनारे
नहीं ले जा सकता?

उसने कहा : हुँ! यह कैसे हो सकता है?

मैंने कहा : ऐसा पूछती हो, तो तुम उपन्यासकार भी
कैसे बन सकती हो?

उसने कहा : न सही – हम नहीं बनते उपन्यासकार।
पर वैसी नदी होगी
तो तुम्हारे शराबख़ाने की ज़रूरत क्या होगी, और उसे
नदी के किनारे तुम ले जाकर ही क्या करोगे?

मैंने ज़िद करके कहा : ज़रूर ले जाऊँगा! अब देखो, मैं
उपन्यास ही लिखता हूँ और उसमें
नदी किनारे शराबख़ाना बनाता हूँ!

उसने भी ज़िद करके कहा : वह
बनेगा ही नहीं! और बन भी गया तो वहाँ तुम अकेले बैठकर
शराब नहीं पी सकोगे!

मैंने कहा : क्यों नहीं? शराबख़ाने में अकेले
शराब पीने पर मनाही होगी?

उसने कहा : मेरी नदी के किनारे तुम को
अकेले बैठने कौन देगा, यह भी सोचा है?

तब मैंने कहा : नदी के किनारे तुम मुझे अकेला
नहीं होने दोगी, तो शराब पीना ही कोई
क्यों चाहेगा, यह भी कभी सोचा है?

इस पर हम दोनों हँस पड़े। वह
उपन्यास वाली नदी और कहीं हो न हो,
इसी हँसी में सदा बहती है,
और वहाँ शराबख़ाने की कोई ज़रूरत नहीं है।

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