जो पर्दो में ख़ुद को छुपाए हुए हैं
क़यामत वही तो उठाए हुए हैं
तिरी अंजुमन में जो आए हुए हैं
ग़म-ए-दो-जहाँ को भुलाए हुए हैं
कोई शाम के वक़्त आएगा लेकिन
सहर से हम आँखें बिछाए हुए हैं
जहाँ बिजलियाँ ख़ुद अमाँ ढूँडती हैं
वहाँ हम नशेमन बनाए हुए हैं
ग़ज़ल आबरू है तो उर्दू जबाँ की
तिरी आबरू हम बचाए हुए हैं
ये अशआर यूँ ही नहीं दर्द-आगीं
‘हफीज़’ आप भी चोट खाए हुए हैं