कविता

तू फूल की रस्सी न बुन

Published by
Kunwar Bechain

आवाज़ को
आवाज़ दे
ये मौन-व्रत
अच्छा नहीं।

जलते हैं घर
जलते नगर
जलने लगे
चिड़यों के पर,
तू ख्वाब में
डूबा रहा
तेरी नज़र
थी बेख़बर।

आँख़ों के ख़त
पर नींद का
यह दस्तख़त
अच्छा नहीं।

जिस पेड़ को
खाते हैं घुन
उस पेड़ की
आवाज़ सुन,
उसके तले
बैठे हुए
तू फूल की
रस्सी न बुन।

जर्जर तनों
में रीढ का
यह अल्पमत
अच्छा नहीं।

है भाल यह
ऊँचा गगन
हैं स्वेदकन
नक्षत्र-गन,
दीपक जला
उस द्वार पर
जिस द्वार पर
है तम सघन।

अब स्वर्ण की
दहलीज़ पर
यह शिर विनत
अच्छा नहीं

953
Published by
Kunwar Bechain