क़लम उठाऊँ कि बच्चों की ज़िंदगी देखूँ
पड़ा हुआ है दोराहे पे अब हुनर मेरा
वो धूप थी कि ज़मीं जल के राख हो जाती
बरस के अब के बड़ा काम कर गया पानी
दुश्मनों को दोस्त भाई को सितमगर कह दिया
लोग क्यूँ बरहम हैं क्या शीशे को पत्थर कह दिया
ऐ मिरे पाँव के छालो मिरे हम-राह रहो
इम्तिहाँ सख़्त है तुम छोड़ के जाते क्यूँ हो
में चाहता हूँ तअल्लुक़ के दरमियाँ पर्दा
वो चाहता है मिरे हाल पर नज़र करना
शाम होते ही बुझ गया ‘आजिज़’
एक मुफ़्लिस का ख़्वाब था न रहा
किरनों को वो बाज़ार में बेच आया है
शायद कि कई दिन से था भूका सूरज
मुझे तो जो भी मिला है अज़ाब की सूरत
मिरी हयात है इक तिश्ना ख़्वाब की सूरत
खेतियाँ छालों की होती थीं लहू उगते थे
कितना ज़रख़ेज़ था वो दर-बदरी का मौसम
मेरी तारीक शबों में है उजाला इन से
चाँद से ज़ख़्मों पे मरहम ये लगाते क्यूँ हो