हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।
अगर मैं तुम को ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुँई,
टटकी कली चम्पे की, वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही : ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के – तुम हो, निकट हो, इसी जादू के –
निजी किसी सहज, गहरे बोध से, किस प्यार से मैं कह रहा हूँ –
अगर मैं यह कहूँ –
बिछली घास हो
तुम लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की?
आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल से
सृष्टि के विस्तार का – ऐश्वर्य का – औदार्य का-
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है,
या शरद की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी अकेली
बाजरे की।
और सचमुच, इन्हें जब-जब देखता हूँ
यह खुला वीरान संसृति का घना हो सिमट आता है –
और मैं एकान्त होता हूँ समर्पित
शब्द जादू हैं –
मगर क्या समर्पण कुछ नहीं है?