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सन्नाटा – अख़्तर राही की नज़्म

मेरी गर्दन मेरे शाने मेरे लब
सब के सब वीरान हैं
अपने घर में एक मैं हूँ
और काली रात का पुर-हौल सन्नाटा

किसी के पाँव की आहट नहीं
चूड़ियों और बर्तनों की खन-खनाहट भी नहीं
सूई धागे एक दूजे से भरे बैठे हुए हैं
धूल में लिपटी किताबें
मेज़ पर बिखरी पड़ी हैं
और चूल्हा
लकड़ियों की याद में गुम-सुम
एक कोने में पड़ा है
और इक अन-जाना साया
घर की चौखट पर खड़ा है
इक हसीं-तस्वीर जो दीवार पर लटकी हुई है
देख कर मुझ को मलूल
चुपके चुपके रो रही है
और काली रात का पुर-हौल सन्नाटा
खिलखिला कर हँस रहा है

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By: Akhtar Rahi

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