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घोर अँधेरा – अख़्तर राही की नज़्म

ख़ून-चाशीदा सदियों का वो घोर-अँधेरा बिखर गया
जंग-ओ-जदल का जज़्बा जागा अम्न का परचम उतर गया
निस्फ़ सदी ढलने को है वो रात ढले
फिर भी लहू का बिफरा दरिया जारी है
मासूमों के नालों से
मज़लूमों की आहों से
इंसानों की चीख़ों से
थर्राते हैं वीराने
सच कहता है रात ढली
रात ढली या ख़ून में डूबी हवा चली
तेरी बानी तू जाने
हम तो ठहरे दीवाने

कोई माने या न माने सौ बातों की बात है ये
बीती शब थी पल दो पल की एक सदी की रात है ये

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By: Akhtar Rahi

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